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वाज॑श्च मे प्रस॒वश्च॑ मे॒ प्रय॑तिश्च मे॒ प्रसि॑तिश्च मे धी॒तिश्च॑ मे॒ क्रतु॑श्च मे॒ स्व॑रश्च मे॒ श्लोक॑श्च मे॒ श्र॒वश्च॑ मे॒ श्रुति॑श्च मे॒ ज्योति॑श्च मे॒ स्व᳖श्च मे य॒ज्ञेन॑ कल्पन्ताम् ॥१ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वाजः॑। च॒। मे॒। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वः। च॒। मे॒। प्रय॑ति॒रिति॒ प्रऽय॑तिः। च॒। मे॒। प्रसि॑ति॒रिति॒ प्रऽसि॑तिः। च॒। मे॒। धी॒तिः। च॒। मे॒। क्रतुः॑। च॒। मे॒। स्वरः॑। च॒। मे॒। श्लोकः॑। च॒। मे॒। श्र॒वः। च॒। मे॒। श्रुतिः॑। च॒। मे॒। ज्योतिः॑। च॒। मे॒। स्व᳖रिति॒ स्वः᳖। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। कल्प॒न्ताम् ॥१ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:18» मन्त्र:1


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अठारहवें अध्याय का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को ईश्वर वा धर्मानुष्ठानादि से क्या-क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (मे) मेरा (वाजः) अन्न (च) विशेष ज्ञान (मे) मेरा (प्रसवः) ऐश्वर्य्य (च) और उसके ढंग (मे) मेरा (प्रयतिः) जिस व्यवहार से अच्छा यत्न बनता है, सो (च) और उसके साधन (मे) मेरा (प्रसितिः) प्रबन्ध (च) और रक्षा (मे) मेरी (धीतिः) धारणा (च) और ध्यान (मे) मेरी (क्रतुः) श्रेष्ठ बुद्धि (च) उत्साह (मे) मेरी (स्वरः) स्वतन्त्रता (च) उत्तम तेज (मे) मेरी (श्लोकः) पदरचना करने हारी वाणी (च) कहना (मे) मेरा (श्रवः) सुनना (च) और सुनाना (मे) मेरी (श्रुतिः) जिससे समस्त विद्या सुनी जाती हैं, वह वेदविद्या (च) और उसके अनुकूल स्मृति अर्थात् धर्मशास्त्र (मे) मेरी (ज्योतिः) विद्या का प्रकाश होना (च) और दूसरे को विद्या का प्रकाश करना (मे) मेरा (स्वः) सुख (च) और अन्य का सुख (यज्ञेन) सेवन करने योग्य परमेश्वर वा जगत् के उपकारी व्यवहार से (कल्पन्ताम्) समर्थ होवें ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! तुम को अन्न आदि पदार्थों से सब के सुख के लिये ईश्वर की उपासना और जगत् के उपकारक व्यवहार की सिद्धि करनी चाहिये, जिससे सब मनुष्यादिकों की उन्नति हो ॥१ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रादौ मनुष्यैर्यज्ञेन किं किं साधनीयमित्याह ॥

अन्वय:

(वाजः) अन्नम् (च) विज्ञानादिकम् (मे) मम (प्रसवः) ऐश्वर्यम् (च) तत्साधनानि (मे) (प्रयतिः) प्रयतते येन सः। अत्र सार्वधातुभ्य० [उणा०४.११९] इत्यौणादिक इन् प्रत्ययः। (च) तत्साधनम् (मे) (प्रसितिः) प्रबन्धः (च) रक्षणम् (मे) (धीतिः) धारणा (च) ध्यानम् (मे) (क्रतुः) प्रज्ञा (च) उत्साहः (मे) (स्वरः) स्वयं राजमानं स्वातन्त्र्यम् (च) परं तपः (मे) (श्लोकः) प्रशंसिता शिक्षिता वाक्। श्लोक इति वाङ्नामसु पठितम् ॥ (निघं०१.११) (च) वक्तृत्वम् (मे) (श्रवः) श्रवणम् (च) श्रावणम् (मे) (श्रुतिः) शृण्वन्ति सकला विद्या यया सा वेदाख्या (च) तदनुकूला स्मृतिः (मे) (ज्योतिः) विद्याप्रकाशः (च) अन्यस्मै विद्याप्रकाशनम् (मे) (स्वः) सुखम् (च) परमसुखम् (मे) (यज्ञेन) पूजनीयेन परमेश्वरेण जगदुपकारकेण व्यवहारेण वा (कल्पन्ताम्) समर्था भवन्तु ॥१ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - मे वाजश्च मे प्रसवश्च मे प्रयतिश्च मे प्रसितिश्च मे धीतिश्च मे क्रतुश्च मे स्वरश्च मे श्लोकश्च मे श्रवश्च मे श्रुतिश्च मे ज्योतिश्च मे स्वश्च यज्ञेन कल्पन्ताम् ॥१ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! युष्माभिरन्नाद्येन सर्वसुखाय यज्ञ उपासनीयः साधनीयश्च, यतः सर्वेषां मनुष्यादीनामुन्नतिर्भवेत् ॥१ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ईश्वराला स्मरून सर्वांच्या सुखासाठी अन्न इत्यादी पदार्थांनी जगावर उपकार करावे. ज्यामुळे सर्व माणसांची उन्नती होईल.